बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता बलराज साहनी की पुण्यतिथि के मौके पर उन्हें शानदार फिल्मों के साथ-साथ अडिग आदर्शों के लिए भी याद किया जा रहा है. वो 13 अप्रैल 1973 को इस दुनिया को छोड़कर चले गए थे. उन्होंने अपने फिल्मी करियर में एक से बढ़कर एक फिल्में दी थीं.
वहीं, बलराज के निधन के बाद उनके बेटे परीक्षित साहनी ने पिता पर ‘द नॉन कन्फर्मिस्ट : मेमरीज ऑफ माई फादर बलराज साहनी’ टाइटल से एक किताब लिखी थी. इस किताब में बलराज की जिंदगी से जुड़े कुछ अनसुने किस्से बताए गए थे. किताब में उनके फिल्मी करियर से लेकर राजनीतिक विचारधारा का भी जिक्र है.
जेल से फिल्म की शूटिंग
बलराज साहनी का असली नाम युद्धिष्ठिर साहनी था और उनका जन्म 1 मई 1913 को पाकिस्तान में हुआ था. उनकी जिंदगी पर आधारित किताब में बताया गया है कि बलराज को बचपन से ही अभिनय का शौक था और इस सपने को पूरा करने के लिए वो 1946 के दौरान ‘इंडियन प्रोग्रेसिव थियेटर एसोसियेशन’ (इप्टा) से जुड़े थे. यहां पर उन्होंने नाटक ‘इंसाफ’ और फिल्म ‘धरती के लाल’ में काम किया था. इप्टा से जुड़े रहने के दौरान उन्हें क्रांतिकारी और कम्युनिस्ट विचारों के कारण जेल भी जाना पड़ा था. उस दौर में वो अपनी फिल्म ‘हलचल’ की शूटिंग कर रहे थे. जब बलराज जेल गए तो मेकर्स की खास रिक्वेस्ट पर उन्हें जेल से कुछ घंटों की छुट्टी दिलाकर शूट पर लाया जाता था. वो शूट करने के बाद जेल लौट जाते थे.
बलराज की आखिरी इच्छा
बलराज ने 1938 में महात्मा गांधी के साथ मिलकर भी काम किया था. इसके कई सालों बाद वो मार्क्सवादी विचारधारा के कारण खूब खबरों में आ गए थे. बलराज की जिंदगी पर लिखी किताब में उनके आखिरी दिनों से जुड़ा एक किस्सा भी बताया गया है.
बलराज अपनी विचारधारा को लेकर इतने पक्के थे कि ऐलान कर दिया कि जब मेरी मौत होगी तो किसी पंडित को ना बुलाया जाए और ना ही कोई मंत्र उच्चारण हो. उनकी इच्छा थी कि ‘मेरे शरीर पर लाल रंग का झंडा रखा जाए’.