वेश्यालय में पहली फिल्म की हीरोइन ढूंढ़ने क्यों गए थे दादा साहब फाल्के, बहुत दिलचस्प है वजह

Shilpi Soni
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दादा साहब फाल्के हिन्दी सिनेमा के पितामाह कहे जाते हैं। उनकी 30 अप्रैल यानि आज जयंती है। हिन्दी सिनेमा (बॉलीवुड) की नींव अगर किसी ने रखी तो वो दादा साहब ही थे। वो निर्देशक होने के साथ ही डायरेक्टर और स्क्रीन राइटर भी हुआ करते थे। फाल्के ने 19 साल की अपनी मेहनत से हिन्दी सिनेमा को स्थापित किया था।

कम ही लोगों को पता होगा कि दादा साहब ने किन संघर्षों के साथ अपनी पहली फिल्म बनाई थी। उनको फिल्म के लिए हीरोइन ही नहीं मिल रही थी। ऐसे में वो हीरोइन तलाशने के लिए वेश्यालय के चक्कर भी लगाने लगे थे। एक होटल में जाकर उनकी तलाश पूरी हुई थी। आइए उनसे जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें जानते हैं।

महाराष्ट्र में जन्मे, छोड़ दी थी फोटोग्राफी

दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को हुआ था। वो महाराष्ट्र के नासिक में एक मराठी परिवार में पैदा हुए थे। उनका नाम धुंडिराज गोविंद फाल्के था। अपनी पढ़ाई उन्होंने बड़ोदा में पूरी करने के बाद वो फोटोग्राफर बन गए थे। एक हादसे के बाद उन्होंने इस करियर को छोड़ दिया था। बता दे की एक हादसे में उनकी पत्नी और बच्ची की मौत हो गई थी जिसके बाद वो सदमे में आ गए थे।

दादा साहब का फोटोग्राफी छोड़ने का फैसला भारतीय सिनेमा के लिए बड़ा मोड़ साबित हुआ। वो हमेशा से कुछ नया करने की चाह रखते थे। उनके जीवन में एक नई राह फ्रेंच फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ ने दिखाई। इस फिल्म को देखकर उनका मन ऐसा रमा कि उन्होंने भी फिल्म बनाने का फैसला कर लिया।

वेश्यालय में जाना पड़ा हीरोइन तलाशने

दादा साहब ने पहली फिल्म ‘राजा हरिशचन्द्र’ बनाने का फैसला किया। इस फिल्म को बनाने से पहले उन्होंने फिल्मों को देखकर उनको बनाने का तरीका सीखा। वो लगातार 2 महीनों तक रोज करीब 5 घंटे सिनेमा देखते रहते थे। फिल्म की उधेड़ बुन के चक्कर में उनकी आंखों की रोशनी करीब करीब जा ही चुकी थी। उनकी सेहत खराब हो गई थी।

उस समय में फिल्मों के लिए हीरोइन मिलना भी आसान काम नहीं हुआ करता था। उन्होंने जब अपनी पहली फिल्म बनाने का फैसला किया तो उसमें तारामती के किरदार के लिए हीरोइन चाहिए थी। हीरोइन जब उनको नहीं मिली तो वो रेड लाइट एरिया के चक्कर लगाने लगे। वहां हीरोइन की तलाश करने लग गए।

होटल में चाय पीते हुए मिली हीरोइन

हैरानी की बात थी कि वेश्यालय में भी उनको हीरोइन नहीं मिली। फीस सुनकर कोई उनकी फिल्म में काम करने को तैयार ही नहीं था। इसी दौरान वो होटल में चाय पी रहे थे। वहां पर उनकी नजर एक लड़की पर पड़ी जिससे उन्होंने फिल्म के लिए बात की। लड़की काम करने के लिए तैयार हो गई। साल 1913 में उनकी पहली फिल्म आई थी।

उन्होंने अपने पूरे करियर में 121 फिल्में बनाईं। वो धार्मिक फिल्में ही बनाया करते थे। फाल्के की कुछ प्रसिद्ध फिल्मों की बात करें तो उनमें लंका दहन, सत्यवान सावित्री, कालिया मर्दन और श्री कृष्ण जन्म हैं। 19 साल तक सिनेमा की सेवा करने वाले दादा साहब ने 16 फरवरी 1944 को नासिक में दुनिया को अलविदा कह दिया था।

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