सम्राट पृथ्वीराज मूवी परदे पर 120 किलोमीटर/ घंटे की स्पीड से आई थी -और परदे पे आते ही किसकी नज़र लग गयी

Deepak Pandey
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अक्षय कुमार को पीरियड ड्रामा फिल्म में सोच पाना भी बहुत सारे बॉलीवुड फैन्स के लिए आसान नहीं रहा होगा। लेकिन फिर भी लोगों ने उम्मीद की कि शायद ‘सम्राट पृथ्वीराज’ में अक्षय का काम देखकर वो सरप्राइज हो जाएं। ट्रेलर आया तो बहुत लोगों को इस रोल में अक्षय भाए भी। मगर क्या डायरेक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी की ये फिल्म, अक्षय और सम्राट पृथ्वीराज की कहानी को एक एपिक अंदाज़ में स्क्रीन पर उतार पाई?

बॉलीवुड और इतिहास का वैसे भी छत्तीस का आंकड़ा रहा है, इसलिए फिल्मों को हिस्ट्री का चैप्टर समझ कर देखने जा रहे हैं तो वैसे भी गलती आपकी है। लेकिन ‘सम्राट पृथ्वीराज’ की असली दिक्कत इतिहास भी नहीं, स्टोरी टेलिंग है। फिल्म के पहले सीन में सम्राट पृथ्वीराज चौहान बने अक्षय कुमार, मुहम्मद गौरी की कैद में, गज़नी- अफ़ग़ानिस्तान में हैं।

पृथ्वीराज की आंखें निकाली जा चुकी हैं और गौरी अपने शेरों के सामने उन्हें डाल कर, अपनी रियाया के साठ तमाशा देख रहा है। शेर जीतेंगे या अक्षय, ये तो आपको पता ही है। शुरुआत में दस मिनट में इस सीक्वेंस के बाद ये फिल्म धीरे-धीरे ऐसी फीकी पड़नी शुरू होती है कि फिर सीधा इंटरवल ब्लॉक के पास जा कर उठती है। क्यों? क्योंकि फिल्म का मकसद किसी तरह पृथ्वीराज को जल्दी से जल्दी मुहम्मद गौरी से भिड़वाना लगता है।

डायरेक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी का लिखा स्क्रीनप्ले, अपने मेन हीरो का शौर्य और पराक्रम दिखाने से ज्यादा ऑडियंस को इतिहास में बैठे इस फिल्म के कैरेक्टर्स से इंट्रोड्यूस करवाने की कोशिश करता रहता है। ये रहे अजमेर-पति पृथ्वीराज चौहान, ये रहे चंद बरदाई (सोनू सूद), ये रहे काका (संजय दत्त), ये रही संयोगिता (मानुषी छिल्लर), ये रहे कन्नौज-पति जयचंद (आशुतोष राणा)। कथित रूप से ‘पृथ्वीराज रासो’ से प्रेरित ये कहानी, इस दिलचस्प काव्य की तरह पृथ्वीराज के कोर में नहीं जाती। न ही इस कहानी के विलेन मुहम्मद गौरी को स्क्रीन पर खूंखार दिखा पाती है।

फिल्म का एकमात्र पॉइंट ये लगता है कि सम्राट पृथ्वीराज, मुहम्मद गौरी, जयचंद और संयोगिता के बार में जो भी बेसिक जानकारी आपको है, यहां बस वो आपको उसी तरह स्क्रीन पर होता दिखेगा। ‘पृथ्वीराज रासो’ से जिस शानदार योद्धा और युद्ध कौशल में पारंगत पृथ्वीराज की इमेज बनती है; फिल्म अपने हीरो को वैसा नहीं खड़ा कर पाती। मामला इतना फीका है कि एक लाइन में भी ये नहीं बताया गया कि पृथ्वीराज और संयोगिता के पिता में क्या रिश्ता था। चंद बरदाई और पृथ्वीराज चौहान के साथ की शुरुआत कैसे हुई, काका कण की बहादुरी और सम्राट के लिए उनका जज्बा। ये सबकुछ फिल्म आपको कर के नहीं दिखाती। बस एक आध लाइन में बोल के बता देती है।

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