उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में जब पहली बार वैज्ञानिकों को डोपामाइन नामक हॉर्मोन का पता चला तो उन्हें ये पता नहीं था कि इस हॉर्मोन का शरीर में काम क्या है। डोपामाइन की गतिविधियों को तकरीबन 50 साल तक मॉनीटर करने के बाद 1950 तक आते-आते वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे, इंसान को जिस भी काम में और जिस भी चीज से खुशी मिलती है, वो इसलिए क्योंकि खुशी के क्षण में मस्तिष्क डोपामाइन रिलीज करने लगता है। विज्ञान ने इसे हैपीनेस हॉर्मोन का नाम दिया ।
दो साल पहले हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की एक 100 साल लंबी चली स्टडी का नतीजा दुनिया के तकरीबन सभी बड़े अखबारों में छपा, जो कह रही थी कि इंसान अपनी जिंदगी से सबसे ज्यादा सिर्फ एक ही चीज चाहता है- “प्यार और खुशी.” कुल मिलाकर हम उस भावना को महसूस करना चाहते हैं, जो उस वक्त महसूस हो रही होती है, जब मस्तिष्क के हॉर्मोन सर्किट से डोपामाइन रिलीज हो रहा होता है। दरअसल हम सब ढेर सारा डोपमाइन चाहते हैं यानि ढेर सारी खुशी। हम हमेशा खुश रहना चाहते हैं।
खुशी की इस तलाश में हम हर वो कुछ करते हैं, जिससे डोपमाइन रिलीज हो. लेकिन ये हमारे आसपास तकरीबन हर व्यक्ति हर वक्त अपने हाथों में स्मार्ट फोन लिए सोशल मीडिया में खोया रहता है। उसे दीन दुनिया की कोई फिक्र नहीं होती। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उसके दिमाग ने जरुरत से ज्यादा डोपमाइन रिलीज कर दिया है।
खुशी का तो पता नहीं लेकिन उसका सीधा रिश्ता डोपमाइन से जरूर है। ये कह रही है डॉ. ऐना लेम्बके की नई किताब- “डोपामाइन नेशन.” डॉ. लेम्बके स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में डुअल डायग्नोसिस एडिक्शन क्लिनिक की हेड हैं । हर तरह के एडिक्शन पर पिछले दो दशकों से काम कर रही हैं. डॉ. लेम्बके का काम मुख्यत: एडिक्शन या लत के फिजियोलॉजिकल पहलुओं से जुड़ा हुआ है. जैसा कि वो कहती हैं कि किसी भी चीज की लत या नशा सिर्फ एक बुरी आदत का मामला भर नहीं है और न ही उससे मुक्त हो पाना आसान है।
किसी भी तरह की लत का शिकार व्यक्ति दरअसल उस चीज से ज्यादा उस डोपामाइन की लत का शिकार होता है यानि की किसी खास चीज के सेवन या किसी खास तरह के व्यवहार से मिलने वाली खुशी। अब खुशी कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे हम गलत ठहरा सकें। खुश होना, खुशी की चाह रखना मनुष्य की सबसे आदिम और सबसे प्राकृतिक जरूरत है. तो इसमें क्या आश्चर्य की लत के शिकार लोग जीवन में दरअसल खुशी ढूंढ रहे होते हैं।
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की ही तीन साल पुरानी एक अन्य स्टडी के मुताबिक इस वक्त दुनिया में 44 फीसदी लोग सोशल मीडिया एडिक्शन के शिकार हैं। सोशल मीडिया की बढ़ती लत का सीधा रिश्ता वास्तविक जिंदगी में बढ़ रहे अकेलेपन और आइसोलेशन से है। इंसानों के बीच रिअल कनेक्ट नहीं है और सोशल मीडिया कनेक्शन का एक भ्रम पैदा कर रहा है।